मैं सज्दा करूँ या कि दिल को सँभालूँ,
मुहम्मद की चौखट नज़र आ रही है
इसी बेख़ुदी में कहीं खो न जाऊँ,
तड़प कमली वाले की तड़पा रही है
दो 'आलम का दाता मेरे सामने है
कि का'बे का का'बा मेरे सामने है
अदा क्यूँ न फ़र्ज़-ए-मोहब्बत करूँ मैं
ख़ुदा की ख़ुदाई झुकी जा रही है
फ़क़ीरी का मुझ में नहीं है सलीक़ा
न आता है कुछ माँगने का तरीक़ा
इधर भी निगाह-ए-करम, कमली वाले !
ज़माने की झोली भरी जा रही है
ये फ़रमाया हक़ ने कि प्यारे मुहम्मद !
हमारे हो तुम हम तुम्हारे, मुहम्मद !
हमें अपने जल्वों में, ऐ कमली वाले !
तुम्हारी ही सूरत नज़र आ रही है
ये जज़्ब-ए-मोहब्बत है रहमत ख़ुदा की
है चौखट मेरे सामने मुस्तफ़ा की
मुझे क्यूँ न हो नाज़ क़िस्मत पे मुस्लिम !
मोहब्बत कहाँ से कहाँ ला रही है