Barkati Kashana

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कितना अफ़सोस होता है ये देख कर के आम लोगों को अगर छोड़ भी दिया जाए, उसके बाद भी जो लोग अपने आप को 'कट्टर मस्लक-ए-आला हज़रत', 'सच्चे सुन्नी बरेलवी', और 'ताजुशशरीआ व हज़ूर सूफ़ी-ए-मिल्लत' के वफ़ादार कह कर इज़्ज़त कमाते हैं—उनका हाल रात की महफ़िल में किसी और ही क़िब्ला की तरफ़ झुकता नज़र आया है। रात भर कव्वाल के इशारों पर झूमना, सुरों पर थिरकना, और रूहानी महफ़िल के नाम पर नफ़्स की तस्कीन लेना—क्या यही है बुज़ुर्गों का पैग़ाम? किस रूहानी सिलसिले का यह हिस्सा है कि नमाज़ की पाबंदी का कोई लिहाज़ नहीं, पर्दे का कोई एहतमाम नहीं, और बुज़ुर्ग की अज़मत का कोई शऊर नहीं? सबसे ज़्यादा दिल दुखाने वाली बात तो यह थी कि इस उर्स की तक़रीब से सिर्फ़ एक दिन पहले, मरकज़-ए-अहले-सुन्नत और दूसरी मक़ामात से बेमिसाल उलेमा-ए-हक़ और क़द्र-शिनासी के मुस्तहिक़ नात-गो तशरीफ़ लाए। ऐसे उलेमा जिनके इल्मी मुक़ाम और ख़िदमात-ए-दीनिया किसी तआरुफ़ के मोहताज नहीं, और ऐसे नात-ख़्वान जिनके लबों से इश्क़-ए-मुस्तफ़ा ﷺ का पैग़ाम रूह तक उतर जाए—लेकिन उन बुज़ुर्गों और सच्चे वारिस-ए-मस्लक की आमद पर ऐसी ख़ामोशी और बे-तअल्लुकी थी, ऐसी बे-क़द्री की गई, के जैसे उनका वजूद ही किसी को महसूस न हुआ हो। इन्हीं में से एक थे बरेली शरीफ़ के ज़िम्मेदार आलिम-ए-बाकमाल मुफ़्ती शहज़ाद आलम साहब, जिन्होंने हाल ही में झांसी और बंगलौर का मुनाज़रा फतह किया है। जिन्हें वक़्त के सबसे बड़े मुहद्दिस की खिलाफ़तो इजाज़त हासिल है और जिन्होंने दलील के साथ कुरान व हदीस की रोशनी में यह साफ़ किया कि उर्स क्या है, कव्वाली क्या है, और इसमें शिरकत करना कैसा है। यह बात एक दिन पहले ही बयान की गई थी, फिर भी अफ़सोस कि आप अपने ही उलेमा की बात नहीं मान रहे महफ़िल में सन्नाटा था, जज़्बात नहीं, इज़्ज़त नहीं। फिर आप ही कहते हैं कि हम पर ज़ुल्म हो रहा है, मौजूदा गवर्नमेंट हमारे घरों/मकानों को बुलडोज़ कर रही, हमारी सुन नहीं रही—तो क्या आप अपने आलिम की सुन रहे? लेकिन जब वो कव्वाल आए—जिनके ज़रिये न कोई मस्लक की नशर-ओ-अशात होती है, न इल्म का फ़रोग़—तब हर तरफ़ से हुजूम दर हुजूम लोग आने लगे। तालियों की गड़गड़ाहट, मोबाइल कैमरों की रौशनी, और सुरों पर झूमता हुआ अंजाम—यह सब कुछ था। कव्वालों को दाद ओ तहसीन देने वालों के चेहरों पर वो जोश था जो न कभी मस्जिद में नज़र आया, न किसी आलिम के बयान पर। और फिर वो सब कुछ होता रहा—रात भर थिरकना, सेल्फ़ियाँ लेना, न रक़्स से हिजाब बचा, न हया से रूहानियत। यक़ीन से कहा जा सकता है कि उनमें से आधे ने भी उन बुज़ुर्ग के मज़ार पर फ़ातिहा तक नहीं पढ़ी होगी, जिनकी निस्बत से यह तक़रीब की जा रही थी। शायद इस लिए कि वहाँ कैमरा नहीं, वहाँ न तालियाँ मिलती हैं न लाइक्स। अब समझ नहीं आता कि यह लोग उम्मत को किस रास्ते पर ले जा रहे हैं? यह रूहानी सिलसिला है या रिया-कारी का मेला? मस्लक-ए-आला हज़रत के नाम पर सिर्फ़ रक़्स, रिया, और रिवायत का तमाशा रह गया है। असलियत, इख़लास, इल्म, और बुज़ुर्गों के पैग़ाम का तो नाम-ओ-निशान तक नहीं। अल्लाह हम सब को हिदायत दे कि हम दावा से ज़्यादा अमल की तरफ़ रुजू कर सकें, और असल मस्लक-ए-आला हज़रत को समझ कर उस पर चलने की तौफ़ीक़ हासिल हो।"

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